पैरों पर पंख लगाये
मुझसे आंखें चुराता
मेरे करीब से दबे पांव
गुजरता चला जा रहा था वक्त
छुपा कर लाखों भेद अपने सीने मे
जाने कहां अनन्त मे विलीन
हुआ चला जा रहा था वक्त
मैने पलक उठा कर देखा
मुस्करा कर वक्त को
पास से जाते देखा
उसके भावहीन चेहरे पर
न कोई मुस्कराहट थी न कोई गम
न मुझसे बिछङने की वेदना थी
न कोई रंज
मेरे वर्तमान का प्रतिबिम्ब
अपनी अदृश्यी आंखों मे उतार
वो चला जा रहा था
कही मुझसे दूर
मैं हतप्रत सा खङा
देखता रहा वक्त को
लम्हा लम्हा कर
खुद से जुदा होते
और इन्तजार करता रहा
उन लम्हों के लौट आने का
जो डूब गये थे कहीं काल के अथाह समन्दर मे
फ़िर कभी न लौट आने के लिये
Thursday, October 23, 2008
Thursday, October 16, 2008
सपनों से प्यार
कभी सितारों के बीच
चमकते चांद को एक टक निहारता हूं,
कभी पलकें मूंद कर
तुम्हारी तस्वीर दिल मे उतारता हूं.
कभी शबनम मे भीगी चान्दनी मे
तुम्हारी परछाईयां दिखाई देती हैं,
कभी पत्तों की खङखङाहट मे
तुम्हारे आने की आहटें सुनाई देती हैं.
अपने होठों की कोरों मे उंगली दबाये
तुम दबे पांव आ मेरे सिरहाने बैठ जाती हो,
नींद से भरी मेरी पलकों को
अपने ओस से होठों से छुआ देती हो.
तुमसे दूर अब इस अकेलेपन मे
मेरा अस्तित्व तुमसे जुङ गया है,
जब से रहने लगी हो तुम मेरे सपनों मे
मुझे सपनो से प्यार हो गया है.
चमकते चांद को एक टक निहारता हूं,
कभी पलकें मूंद कर
तुम्हारी तस्वीर दिल मे उतारता हूं.
कभी शबनम मे भीगी चान्दनी मे
तुम्हारी परछाईयां दिखाई देती हैं,
कभी पत्तों की खङखङाहट मे
तुम्हारे आने की आहटें सुनाई देती हैं.
अपने होठों की कोरों मे उंगली दबाये
तुम दबे पांव आ मेरे सिरहाने बैठ जाती हो,
नींद से भरी मेरी पलकों को
अपने ओस से होठों से छुआ देती हो.
तुमसे दूर अब इस अकेलेपन मे
मेरा अस्तित्व तुमसे जुङ गया है,
जब से रहने लगी हो तुम मेरे सपनों मे
मुझे सपनो से प्यार हो गया है.
Wednesday, October 15, 2008
मजदूरिन
चिलमिलाती धूप मे
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,
रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,
रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है
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