Thursday, October 23, 2008

वक्त

पैरों पर पंख लगाये
मुझसे आंखें चुराता
मेरे करीब से दबे पांव
गुजरता चला जा रहा था वक्त
छुपा कर लाखों भेद अपने सीने मे
जाने कहां अनन्त मे विलीन
हुआ चला जा रहा था वक्त

मैने पलक उठा कर देखा
मुस्करा कर वक्त को
पास से जाते देखा
उसके भावहीन चेहरे पर
न कोई मुस्कराहट थी न कोई गम
न मुझसे बिछङने की वेदना थी
न कोई रंज

मेरे वर्तमान का प्रतिबिम्ब
अपनी अदृश्यी आंखों मे उतार
वो चला जा रहा था
कही मुझसे दूर
मैं हतप्रत सा खङा
देखता रहा वक्त को
लम्हा लम्हा कर
खुद से जुदा होते
और इन्तजार करता रहा
उन लम्हों के लौट आने का
जो डूब गये थे कहीं काल के अथाह समन्दर मे
फ़िर कभी न लौट आने के लिये

Thursday, October 16, 2008

सपनों से प्यार

कभी सितारों के बीच
चमकते चांद को एक टक निहारता हूं,
कभी पलकें मूंद कर
तुम्हारी तस्वीर दिल मे उतारता हूं.
कभी शबनम मे भीगी चान्दनी मे
तुम्हारी परछाईयां दिखाई देती हैं,
कभी पत्तों की खङखङाहट मे
तुम्हारे आने की आहटें सुनाई देती हैं.

अपने होठों की कोरों मे उंगली दबाये
तुम दबे पांव आ मेरे सिरहाने बैठ जाती हो,
नींद से भरी मेरी पलकों को
अपने ओस से होठों से छुआ देती हो.

तुमसे दूर अब इस अकेलेपन मे
मेरा अस्तित्व तुमसे जुङ गया है,
जब से रहने लगी हो तुम मेरे सपनों मे
मुझे सपनो से प्यार हो गया है.

Wednesday, October 15, 2008

मजदूरिन

चिलमिलाती धूप मे
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,

रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है