कभी जब अपनी जिंदगी के टुकङे
समेटने की कौशिश करता हूं तो
खुद को पाता हूं सन्नाटों से घिरा
नितान्त अकेला
रेगिस्तान मे बालू के टीले पर
खङे उस हिरण की तरहा
जो पानी के एक घूंट की लालशा मे
छलावी नदी के पीछे भटकता रहता है
हर बार मगर पाता है
वही सूखी रेत का सागर और
भट्ठी सी तपती आंधियां
जो धकेल देती हैं उसे
एक ऐसे जहां मे
जहां से कभी कोई लौट कर नही आता
Friday, September 25, 2009
Wednesday, June 3, 2009
वो सिन्दूरी शाम
उस सिन्दूरी शाम को जब
सूरज क्षितिज़ के छोर पर सरकता जा रहा था
गोधूलि मे उठा रेत का बादल
आकाश मे बिखरता जा रहा था
थके-हारे उनींदे से पंछी
अपने घरों मे लौट चले थे
और तुम थी मेरे पास खङी
शान्त, निश्चल, नि:शब्द
मानो उन पलों को अपनी सांसों मे घोल कर
पी जाना चाहती थी
फूट कर बिखरते भावनाओं के ज्वार को
अपने भीतर समेट लेना चाहती थी
नजरों से जमीन को कुरेदते हुए
तुमने बुदबुदाते होठों से एक वादा कर डाला
लिख कर अपना नाम मेरी हथेली पर
अपनी मरमरी उंगलियों के पोरों से
एक ही पल मे तुमने
मेरे जीवन का अर्थ बदल डाला
सूरज क्षितिज़ के छोर पर सरकता जा रहा था
गोधूलि मे उठा रेत का बादल
आकाश मे बिखरता जा रहा था
थके-हारे उनींदे से पंछी
अपने घरों मे लौट चले थे
और तुम थी मेरे पास खङी
शान्त, निश्चल, नि:शब्द
मानो उन पलों को अपनी सांसों मे घोल कर
पी जाना चाहती थी
फूट कर बिखरते भावनाओं के ज्वार को
अपने भीतर समेट लेना चाहती थी
नजरों से जमीन को कुरेदते हुए
तुमने बुदबुदाते होठों से एक वादा कर डाला
लिख कर अपना नाम मेरी हथेली पर
अपनी मरमरी उंगलियों के पोरों से
एक ही पल मे तुमने
मेरे जीवन का अर्थ बदल डाला
Friday, January 2, 2009
चांदनी
धरती के दामन मे कल
मचलती रही चांदनी रात भर
कभी सितारों को चूमती
तो कभी बादलों से खेलती
कभी वादियों मे दरिया के साथ बह जाती
तो कभी पेङों की शाखाओं से लिपट जाती
फ़िर कभी पर्वतों की चोटियों पे
फ़ुदकती चली गयी चांदनी रात भर
कभी रजनीगंधा की सुगंध मे लिपट जाती
तो कभी गुलाबों की महक से बहक जाती
कभी हवाओं पे सवार हो कर यूं ही घूमती
तो कभी ओस की बूंद मे छुप कोंपलें चूमती
फ़िर कभी सागर की लहरों पे फ़िसलती
चली गयी चांदनी रात भर
कभी राहगिरों को रास्ता दिखाती
तो कभी गुपचुप कोने मे बैठ जाती
कभी बिछुङे दिलों को मिलाती
तो कभी बिछुङे प्रेमियों को रुलाती
फ़िर भोर के सूरज को चूमने की लालसा मे
बस यूं ही जागती रही चांदनी रात भर
मचलती रही चांदनी रात भर
कभी सितारों को चूमती
तो कभी बादलों से खेलती
कभी वादियों मे दरिया के साथ बह जाती
तो कभी पेङों की शाखाओं से लिपट जाती
फ़िर कभी पर्वतों की चोटियों पे
फ़ुदकती चली गयी चांदनी रात भर
कभी रजनीगंधा की सुगंध मे लिपट जाती
तो कभी गुलाबों की महक से बहक जाती
कभी हवाओं पे सवार हो कर यूं ही घूमती
तो कभी ओस की बूंद मे छुप कोंपलें चूमती
फ़िर कभी सागर की लहरों पे फ़िसलती
चली गयी चांदनी रात भर
कभी राहगिरों को रास्ता दिखाती
तो कभी गुपचुप कोने मे बैठ जाती
कभी बिछुङे दिलों को मिलाती
तो कभी बिछुङे प्रेमियों को रुलाती
फ़िर भोर के सूरज को चूमने की लालसा मे
बस यूं ही जागती रही चांदनी रात भर
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