Friday, September 25, 2009

जिंदगी के टुकङे

कभी जब अपनी जिंदगी के टुकङे
समेटने की कौशिश करता हूं तो
खुद को पाता हूं सन्नाटों से घिरा
नितान्त अकेला
रेगिस्तान मे बालू के टीले पर
खङे उस हिरण की तरहा
जो पानी के एक घूंट की लालशा मे
छलावी नदी के पीछे भटकता रहता है
हर बार मगर पाता है
वही सूखी रेत का सागर और
भट्ठी सी तपती आंधियां
जो धकेल देती हैं उसे
एक ऐसे जहां मे
जहां से कभी कोई लौट कर नही आता