कभी जब अपनी जिंदगी के टुकङे
समेटने की कौशिश करता हूं तो
खुद को पाता हूं सन्नाटों से घिरा
नितान्त अकेला
रेगिस्तान मे बालू के टीले पर
खङे उस हिरण की तरहा
जो पानी के एक घूंट की लालशा मे
छलावी नदी के पीछे भटकता रहता है
हर बार मगर पाता है
वही सूखी रेत का सागर और
भट्ठी सी तपती आंधियां
जो धकेल देती हैं उसे
एक ऐसे जहां मे
जहां से कभी कोई लौट कर नही आता
Friday, September 25, 2009
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