ध्यान योग मे बैठे योगी की तरहा
उसके शान्त, निर्मल चेहरे से
मानो दैव्यता टपकती है
ना कोई विषाद है, ना दर्द
ना कोई उल्लास है, ना हर्ष
ना कुछ पा लेने की अभिलाषा
ना कुछ खो जाने की हताशा
समय चक्र का उसे कुछ ध्यान नही
क्या वर्तमान, क्या भविष्य
कुछ ज्ञान नही
पता नही कब दिन और रात गुजर जाते हैं
मौसम आते हैं
मगर उसे बिना छुये निकल जाते हैं
भीतर एक सन्नाटा सा भर गया है
रिश्तों और सम्बधों का कोई अर्थ नही रह गया है
होठ बहुत कुछ कहना चाहते हैं
मगर पत्थर बन गये शब्द होठों तक आकर रुक जाते हैं
बुदबुदाते होठों से निकले शब्दहीन वाक्य
बिना कहे ही सब कुछ कह जाते हैं
शून्य मे अपलक झांकती उसकी आंखें
शायद ढूंढ रही हैं वक्त के उन लम्हों को
जो अतीत की तस्वीरें लेकर
उसके साथ आंखमिचौली रचाते हैं
कभी जुगनुओं से टिमटिमाते हैं
कभी रात के कण बन अंधेरे मे खो जाते हैं
मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठ कर
वो जा पहुंचा है एक ऐसे धरातल पर
जहां उसे ना जीवन पर प्यार आता है
ना मौत का खौफ़ सताता है
अपने चारों तरफ़ फ़ैले
एक असीम, शांत, धवल सागर
की सतह पर धीमे-धीमे चल कर
वो चलता जा रहा है सबसे दूर
एक योगी की तरहा
Tuesday, October 5, 2010
Saturday, September 18, 2010
सिकन्दर
जीवन आंसूओं और मुस्कराहाटों का
एक गठबन्धन है
कभी पर्वतों सी उंचाईयां
तो कभी गहरी घाटियों का संगम है
इस सफ़र का हर लम्हा
नयी चुनौती भरा होता है
मिलते हैं फूल कभी गुलिस्तां के
तो कभी नागफ़नी (कैक्टस) के
जंगलों से गुजरना होता है
घबरा कर जीवन की वास्तविकता से
जो हार जायेगा
वक्त के अंधेरों मे वो कहीं विलीन हो जायेगा
पीस डालेगा जो चट्टानों को अपनी हथेलियों से
इस दुनियां मे
सिकन्दर वही कहलायेगा
एक गठबन्धन है
कभी पर्वतों सी उंचाईयां
तो कभी गहरी घाटियों का संगम है
इस सफ़र का हर लम्हा
नयी चुनौती भरा होता है
मिलते हैं फूल कभी गुलिस्तां के
तो कभी नागफ़नी (कैक्टस) के
जंगलों से गुजरना होता है
घबरा कर जीवन की वास्तविकता से
जो हार जायेगा
वक्त के अंधेरों मे वो कहीं विलीन हो जायेगा
पीस डालेगा जो चट्टानों को अपनी हथेलियों से
इस दुनियां मे
सिकन्दर वही कहलायेगा
Friday, September 17, 2010
भविष्य
दिन भर चमकने के बाद
सूरज की किरणें मंद हो गयी थी
रोशनी की तलाश मे पेङों की परछाईयां
कहीं खो गयी थी
अपनी जीर्ण काया मे खुद को समेटे
ढलते सूरज से बेखबर
वो अकेला, गुमसुम, चुपचाप
रेत की पगडंडी पर चल रहा था
शायद भीतर उठे किसी अन्तर्द्वन्द से लङ रहा था
शाश्वत सच्चाई को नकारना मुश्किल होता है
शाम के बाद रात का आना निश्चित होता है
क्षितिज की ओर बढते उसके कदम देख कर
एकाएक एक ख्याल मेरे मन मे उभर आता है
वक्त की गर्द तले दबी उस जर्जर काया मे
मुझे उसका वर्तमान नही
अपना भविष्य नजर आता है
सूरज की किरणें मंद हो गयी थी
रोशनी की तलाश मे पेङों की परछाईयां
कहीं खो गयी थी
अपनी जीर्ण काया मे खुद को समेटे
ढलते सूरज से बेखबर
वो अकेला, गुमसुम, चुपचाप
रेत की पगडंडी पर चल रहा था
शायद भीतर उठे किसी अन्तर्द्वन्द से लङ रहा था
शाश्वत सच्चाई को नकारना मुश्किल होता है
शाम के बाद रात का आना निश्चित होता है
क्षितिज की ओर बढते उसके कदम देख कर
एकाएक एक ख्याल मेरे मन मे उभर आता है
वक्त की गर्द तले दबी उस जर्जर काया मे
मुझे उसका वर्तमान नही
अपना भविष्य नजर आता है
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