Tuesday, October 5, 2010

अल्झहाईमर (विस्मॄति)

ध्यान योग मे बैठे योगी की तरहा
उसके शान्त, निर्मल चेहरे से
मानो दैव्यता टपकती है
ना कोई विषाद है, ना दर्द
ना कोई उल्लास है, ना हर्ष
ना कुछ पा लेने की अभिलाषा
ना कुछ खो जाने की हताशा
समय चक्र का उसे कुछ ध्यान नही
क्या वर्तमान, क्या भविष्य
कुछ ज्ञान नही
पता नही कब दिन और रात गुजर जाते हैं
मौसम आते हैं
मगर उसे बिना छुये निकल जाते हैं
भीतर एक सन्नाटा सा भर गया है
रिश्तों और सम्बधों का कोई अर्थ नही रह गया है
होठ बहुत कुछ कहना चाहते हैं
मगर पत्थर बन गये शब्द होठों तक आकर रुक जाते हैं
बुदबुदाते होठों से निकले शब्दहीन वाक्य
बिना कहे ही सब कुछ कह जाते हैं
शून्य मे अपलक झांकती उसकी आंखें
शायद ढूंढ रही हैं वक्त के उन लम्हों को
जो अतीत की तस्वीरें लेकर
उसके साथ आंखमिचौली रचाते हैं
कभी जुगनुओं से टिमटिमाते हैं
कभी रात के कण बन अंधेरे मे खो जाते हैं
मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठ कर
वो जा पहुंचा है एक ऐसे धरातल पर
जहां उसे ना जीवन पर प्यार आता है
ना मौत का खौफ़ सताता है
अपने चारों तरफ़ फ़ैले
एक असीम, शांत, धवल सागर
की सतह पर धीमे-धीमे चल कर
वो चलता जा रहा है सबसे दूर
एक योगी की तरहा