Wednesday, June 3, 2009

वो सिन्दूरी शाम

उस सिन्दूरी शाम को जब
सूरज क्षितिज़ के छोर पर सरकता जा रहा था
गोधूलि मे उठा रेत का बादल
आकाश मे बिखरता जा रहा था
थके-हारे उनींदे से पंछी
अपने घरों मे लौट चले थे
और तुम थी मेरे पास खङी
शान्त, निश्चल, नि:शब्द
मानो उन पलों को अपनी सांसों मे घोल कर
पी जाना चाहती थी
फूट कर बिखरते भावनाओं के ज्वार को
अपने भीतर समेट लेना चाहती थी
नजरों से जमीन को कुरेदते हुए
तुमने बुदबुदाते होठों से एक वादा कर डाला
लिख कर अपना नाम मेरी हथेली पर
अपनी मरमरी उंगलियों के पोरों से
एक ही पल मे तुमने
मेरे जीवन का अर्थ बदल डाला

1 comment:

सुनीता शानू said...

क्या बात है बहुत ही सुन्दर जीने की आशा जगाती सुंदर रचना है यह।