मैं तकता रहा उस रस्ते को
जिस पर आहिस्ता आहिस्ता कदमों से चल कर तुम
मेरी नजरों से औझल हो गयी थी
एक बुत सा खङा मैं सोचता रहा
शायद तुम लौट आओगी
मगर तुम नही आयी
मैं देखता रहा सूरज को
आहिस्ता आहिस्ता झील मे डूबते
और सोचता रहा
हमेशा की तरह
रात पङे तुम दबे पांव आओगी
धीमे से अपनी हथेलियों से
मेरी पलकें छुपा कर खिलखिलाओगी
रात की चादर मे लिपटा मैं
इन्तजार करता रहा
तुम्हारी हथेलियों के अहसास का
मगर तुम नही आई
शायद तुमने सब कुछ भुला दिया
मगर मेरे इन्तजार का अन्त ना हुआ
तुम्हारे दामन की खुशबू
अब भी जैसे हवाओं मे बसी हो
लगता है मानो तुम मेरे पास
बस यहीं कहीं हो
अपनी तन्हाई से बातें करता
इन्तजार करता रहता हूं मैं
उस पल का
जब तुम मेरे घर का दरवाजा खटखटाओगी
और तुम लौट आओगी
Tuesday, October 11, 2011
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