Tuesday, October 11, 2011

मगर तुम नही आई

मैं तकता रहा उस रस्ते को
जिस पर आहिस्ता आहिस्ता कदमों से चल कर तुम
मेरी नजरों से औझल हो गयी थी
एक बुत सा खङा मैं सोचता रहा
शायद तुम लौट आओगी
मगर तुम नही आयी

मैं देखता रहा सूरज को
आहिस्ता आहिस्ता झील मे डूबते
और सोचता रहा
हमेशा की तरह
रात पङे तुम दबे पांव आओगी
धीमे से अपनी हथेलियों से
मेरी पलकें छुपा कर खिलखिलाओगी
रात की चादर मे लिपटा मैं
इन्तजार करता रहा
तुम्हारी हथेलियों के अहसास का
मगर तुम नही आई

शायद तुमने सब कुछ भुला दिया
मगर मेरे इन्तजार का अन्त ना हुआ
तुम्हारे दामन की खुशबू
अब भी जैसे हवाओं मे बसी हो
लगता है मानो तुम मेरे पास
बस यहीं कहीं हो
अपनी तन्हाई से बातें करता
इन्तजार करता रहता हूं मैं
उस पल का
जब तुम मेरे घर का दरवाजा खटखटाओगी
और तुम लौट आओगी

1 comment:

Monika Jain said...

vishvas kuch aisa hi hota hai..dimag janta hai par dil nhi manta...bahut sundar prastuti