Wednesday, October 15, 2008

मजदूरिन

चिलमिलाती धूप मे
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,

रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है

10 comments:

सुनीता शानू said...

आकाशजी सवेंदनाओ से लिपटी आपकी कविता सचमुच बहुत अच्छी लगी, एक मजदूर का दर्द कौन समझ सकता है, मगर आपने इसे समझा।
बहुत-बहुत बधाई...

आप निरन्तर ऎसे ही लिखते रहें यही मनोकामना है।

सुनीता शानू

Dr. SM Nasar Hamid said...

HI SUNITA

YOUR WORD PITCHER OF MAZDURNI IS ATTRACTIVE.

Dr.S.M.NASAR HAMID

Amit K Sagar said...

उम्दा.

shama said...

Bohot sundar..."Mazdurin" aur ek maa...!
Aagebhi aapke blogpe aatee rahungi!

36solutions said...

वह तोडती पत्‍थर, देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर ........


सुन्‍दर

आकाश: said...

सुनीता जी, नसर हमीद भाई, शमा जी, अमित और सजीव जी. आप सब को मेरी रचना पसंद आई जान कर बहुत खुशी हुई. आपके कमेन्ट्स के लिये धन्यवाद.

आकाश

अभिषेक मिश्र said...

आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
Bhavpurna hai kavita aapki. Swagat.

Aruna Kapoor said...

Yeh majadoorin bhale hi ho....par hai to ek naari!...isaki yeh durdasha!...kavita mein saTik varnan kiya gaya hai!...dhanyawad!

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi samvedanshil rachna.....kavi nirala ki kalam yaad aa gai

प्रदीप मानोरिया said...

आपके संवेदन शील ह्रदय से परिचित कराती सुंदर पंक्तियाँ और गहरे भाव बधाई आपका चिठ्ठा जगत में स्वागत है , निरंतरता की चाहत है मेरे ब्लॉग पर पधारे