चिलमिलाती धूप मे
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,
रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है
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10 comments:
आकाशजी सवेंदनाओ से लिपटी आपकी कविता सचमुच बहुत अच्छी लगी, एक मजदूर का दर्द कौन समझ सकता है, मगर आपने इसे समझा।
बहुत-बहुत बधाई...
आप निरन्तर ऎसे ही लिखते रहें यही मनोकामना है।
सुनीता शानू
HI SUNITA
YOUR WORD PITCHER OF MAZDURNI IS ATTRACTIVE.
Dr.S.M.NASAR HAMID
उम्दा.
Bohot sundar..."Mazdurin" aur ek maa...!
Aagebhi aapke blogpe aatee rahungi!
वह तोडती पत्थर, देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर ........
सुन्दर
सुनीता जी, नसर हमीद भाई, शमा जी, अमित और सजीव जी. आप सब को मेरी रचना पसंद आई जान कर बहुत खुशी हुई. आपके कमेन्ट्स के लिये धन्यवाद.
आकाश
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
Bhavpurna hai kavita aapki. Swagat.
Yeh majadoorin bhale hi ho....par hai to ek naari!...isaki yeh durdasha!...kavita mein saTik varnan kiya gaya hai!...dhanyawad!
bahut hi samvedanshil rachna.....kavi nirala ki kalam yaad aa gai
आपके संवेदन शील ह्रदय से परिचित कराती सुंदर पंक्तियाँ और गहरे भाव बधाई आपका चिठ्ठा जगत में स्वागत है , निरंतरता की चाहत है मेरे ब्लॉग पर पधारे
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