दिन भर चमकने के बाद
सूरज की किरणें मंद हो गयी थी
रोशनी की तलाश मे पेङों की परछाईयां
कहीं खो गयी थी
अपनी जीर्ण काया मे खुद को समेटे
ढलते सूरज से बेखबर
वो अकेला, गुमसुम, चुपचाप
रेत की पगडंडी पर चल रहा था
शायद भीतर उठे किसी अन्तर्द्वन्द से लङ रहा था
शाश्वत सच्चाई को नकारना मुश्किल होता है
शाम के बाद रात का आना निश्चित होता है
क्षितिज की ओर बढते उसके कदम देख कर
एकाएक एक ख्याल मेरे मन मे उभर आता है
वक्त की गर्द तले दबी उस जर्जर काया मे
मुझे उसका वर्तमान नही
अपना भविष्य नजर आता है
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2 comments:
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ..बधाई !
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इतनी गम्भीरता! क्या बात है बहुत उदास लग रहे हैं। ऎसे भविष्य की कल्पना ही क्यों करते हैं?
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