Friday, September 17, 2010

भविष्य

दिन भर चमकने के बाद

सूरज की किरणें मंद हो गयी थी

रोशनी की तलाश मे पेङों की परछाईयां

कहीं खो गयी थी

अपनी जीर्ण काया मे खुद को समेटे

ढलते सूरज से बेखबर

वो अकेला, गुमसुम, चुपचाप

रेत की पगडंडी पर चल रहा था

शायद भीतर उठे किसी अन्तर्द्वन्द से लङ रहा था

शाश्वत सच्चाई को नकारना मुश्किल होता है

शाम के बाद रात का आना निश्चित होता है

क्षितिज की ओर बढते उसके कदम देख कर

एकाएक एक ख्याल मेरे मन मे उभर आता है

वक्त की गर्द तले दबी उस जर्जर काया मे

मुझे उसका वर्तमान नही

अपना भविष्य नजर आता है

2 comments:

Coral said...

बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ..बधाई !
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इसे भी पढ़े :- मजदूर

http://coralsapphire.blogspot.com/2010/09/blog-post_17.html

सुनीता शानू said...

इतनी गम्भीरता! क्या बात है बहुत उदास लग रहे हैं। ऎसे भविष्य की कल्पना ही क्यों करते हैं?