Thursday, March 5, 2015

विधवा

चुलबुलाते बचपन की देहलीज लांघ कर
अभी उसने यौवन की चौखट पर था पांव रखा
खो गयी अपने नवनीत प्रेम की  गोद में
बन गयी थी वो अपने प्रियतम  की प्रेम सखा
नियति को शायद उसकी खुशियां नहीं  भायी
धो दिया उसकी मांग का सिंदूर
अभी तो उसके हाथों मेहंदी भी ना सूखने पाई
समाज ने  उतार कर सुहाग जोड़ा उसका
ढक दिया काले कपड़े से
कल सुहागन थी
आज विधवा कहलायी
नोच लिए उसके पैरों से घुंघरू
तोड़ डाली हाथों की चूड़ियां
धकेल दिया उसे विषाद के अंधे कमरे में
पहना कर पैरों में रिवाजों की बेड़ियां

अंगारों पर बैठ कर काटना होगा शेष जीवन अब
होठों पर खेलती मुस्कान अब कभी लौट कर नहीं आएगी
कहने को तो जिंदा रहेगी
मगर अपनी जिंदगी वो अब कभी जी नहीं पायेगी
 धिक्कार है ऐसे समाज पर
जिसमे रक्षक ही भक्षक बन जाता है
प्रताड़ित करता है अपनी बेक़सूर बेटियों को
 छीन कर उनसे जीने का हक़
और धकेल देता है उन्हें कुरीतियों की भट्टी मे
तिल तिल कर जिंदा जल जाने के लिए 

Wednesday, January 28, 2015

तुम्हारी यादें

तुम्हारी यादें कभी कभी अब भी चली आती हैं 
रात की ख़ामोशी में दबे पांव आकर 
बिना कुछ कहे 
बस चुपचाप मेरे सिरहाने बैठ जाती हैं 
बैरागी बन गए वो लम्हे 
मेरे दिल को थपथपाते हैं ऐसे 
राह भूला कोई राहगीर 
किसी अजनबी का दरवाजा खटखटाता हो जैसे 
शाम के  धुंधलके में 
पेड़ों की कतारों के पीछे से निकल कर तुम्हारी  यादें 
बिना कुछ बोले मेरे साथ हो जाती हैं 
उस सुनसान लम्बी सड़क पर मेरा एकाकीपन मिटाने 
कुछ देर को मेरी साथी बन जाती है 
बनजारों सी दिशाहीन भटकती तुम्हारी यादें 
जब  कभी मुझे अकेला पा लेती हैं 
घेरने  के इरादे से  मुझे अपनी बाहों मे 
अनायास बस कभी कभार 
अब भी मेरे पास चली आती हैं   

Monday, December 22, 2014

उम्मीद

हाल में अफ्रीका के दौरे पर ली पिक्चर

उम्मीद 

जहां तक नजर जाती है
जीवन में सिर्फ रिक्तता नजर आती है
सुनहरी धूप में जैसे भरा हो कालापन
गुनगुनाती हवाओं में जैसे तैरता हो सूनापन  
दूर तक फैला ये रेत का समंदर 
जमीं के किनारो से उभरते लम्हों को टटोलती नजर 
पता नही क्षितिज के उस पार क्या छिपा है 
शायद आने वाला कल आज से बेहतर होगा 
बस मेरा संसार इसी उम्मीद पर टिका है  

Tuesday, May 27, 2014

अमावस की रात

तुमने कोई वादा नहीं तोड़ा
क्योंकि तुमने कभी कोई वादा किया ही नहीं था
वो तो मेरी नादानी थी
जो तुम्हे अपने इतना नजदीक समझ लिया था
मैं भूल गया था कि
चादंनी सिर्फ कुछ दिनों को होती है
पूनम की रात के बाद अमावस फिर लौट आती है
चांद को अपना समझ लेने से
चांद जमीं पर तो नहीं उतर आता
सपनों की नींव पर बना घरौंदा
कभी सच तो नहीं हो जाता
तुमने भी वही किया
जो  दुनिया ने किया था
तुमने भी वही दिया
जो दुनिया ने दिया था
बिना कुछ कहे बस चुपचाप चली गयी
लेकर चांदनी अपने साथ
और अमावस की रात फिर से लौट आई
पूनम की रात के बाद
   

Monday, December 30, 2013

पीठ का घाव

जब तुम बियांवान जंगल में  अकेले भटक रही थी
मैं तुम्हारा साथी बना
और खतरों से दूर ले आया
जब तुम्हारी नाव उफनती नदी में हिचकोले खा रही थी
मैं तुम्हारी पतवार बना
और किनारे ले आया
जब तुम अंधेरो से घिर गयी थी
मैं तुम्हारा दीपक बना
और रोशनी में ले आया
जब तुम रेतीली आंधी में अंधिया गयी थी
मैं तुम्हारा सहारा बना
और आंधी से टकराया
जब भी तुमने मुझे पुकारा
मैं जहां भी रहा
तुमने मुझे अपने नजदीक पाया
उस समर्पण का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं था
अब ये बात खुद को कैसे समझाऊ
दिल के घाव तो शायद समय के साथ भर जायेंगे
मगर पीठ पर लगे घाव पर बताओ कौन सी मरहम लगांऊ       

Friday, March 15, 2013

जख्म

नही, तुम मन की पीडा नही समझती
रुह पर लगे घाव कितने गहरे होते हैं
इसकी व्यथा नही समझती
हर बार जब मैं जीना चाहता हूं
तुम मुझ से जिंदगी छीन लेती हो
मुस्कराहटों की जगह
मेरी सांसों मे आहें घोल देती हो
रुह पर लगे घाव कभी दिखाई नही देते
रिसते रहतें हैं भीतर ही भीतर
मगर कभी नही भरते
मेरी वेदनाऒं का एहसास
शायद तुम्हे इसलिये नही होता
क्योंकि दर्द से बिलखते हुये भी
मैं कभी मुस्कराना नही छोडता

Tuesday, October 11, 2011

मगर तुम नही आई

मैं तकता रहा उस रस्ते को
जिस पर आहिस्ता आहिस्ता कदमों से चल कर तुम
मेरी नजरों से औझल हो गयी थी
एक बुत सा खङा मैं सोचता रहा
शायद तुम लौट आओगी
मगर तुम नही आयी

मैं देखता रहा सूरज को
आहिस्ता आहिस्ता झील मे डूबते
और सोचता रहा
हमेशा की तरह
रात पङे तुम दबे पांव आओगी
धीमे से अपनी हथेलियों से
मेरी पलकें छुपा कर खिलखिलाओगी
रात की चादर मे लिपटा मैं
इन्तजार करता रहा
तुम्हारी हथेलियों के अहसास का
मगर तुम नही आई

शायद तुमने सब कुछ भुला दिया
मगर मेरे इन्तजार का अन्त ना हुआ
तुम्हारे दामन की खुशबू
अब भी जैसे हवाओं मे बसी हो
लगता है मानो तुम मेरे पास
बस यहीं कहीं हो
अपनी तन्हाई से बातें करता
इन्तजार करता रहता हूं मैं
उस पल का
जब तुम मेरे घर का दरवाजा खटखटाओगी
और तुम लौट आओगी

Monday, September 19, 2011

इन्सानियत

इन्सान और इन्सानियत
वो हंस कर बोला
मुश्किल है मिलाना
आज के इन्सानों मे
इन्सानियत खोज पाना

अब इन्सानो के दिल सूख कर
बंजर हो चुके हैं
जज्बाती रिश्ते कतरा-कतरा कर
मर चुके हैं
अब जनाजों को उठता देख कर
लोगों की आंखें नम नही होती
जलती इमारतें देख कर
होठों से उफ़ तक नही निकलती
लाशों के ढेर के पास से गुजर कर भी
किसी का खून नही खौलता है
क्योंकि अब इन्सानो की रगों मे
खून नही पानी दौङता है

आज का इन्सान खुदगर्जी की
गर्द तले दब गया है
इन्सानियत तो महज एक
किताबी शब्द बन रह गया है
कभी-कभी मुझे यूं लगता है जैसे
शैतान खुद उतर कर जमीं पर आ गया है
जो इन्सानों के साथ साथ उनकी
इन्सानियत भी खा गया है

Friday, August 26, 2011

तुम्हारी स्मृतियां

कुछ मीठी
कुछ मुस्कराती
कुछ दर्दीली
कुछ रुलाती
कुछ घावों सी रिसती
कुछ घावों पर मरहम लगाती
तुम्हारी स्मृतियां

कविताओं के छंदों मे खोई
किताबों तले फूलों मे संजोई
पेङों की कतारों पर चिपकी
वर्षाती हवाओं मे लिपटी
सितारों सी टिमटिमाती
चांदनी मे नहाती
तुम्हारी स्मृतियां

अपने तन्हा पलों मे मैं खो जाता हूं
तुम्हारी स्मृतियों मे
तराशता हूं एक-एक कर
सहलाता हूं
चूमता हूं प्रेमिका की भांति
सीने से लगाता हूं
शायद इसीलिये
तुम्हारी स्मृतियों ने मुझे अपना लिया है
मेरे दिल मे अपना घर बना लिया है
जो तुम ना कर पायी कभी
तुम्हारी स्मृतियों ने कर दिया
बंजर से मेरे जीवन को
तुम्हारे प्यार से भर दिया

Monday, August 22, 2011

गलती

जाने किस भ्रम मे खो बैठा था
सपनों को सच्चाई समझ बैठा था
ढके बैठा था जिन जख्मों को एक जमाने से
आज तुमने उनको फ़िर से उभार डाला
जो राहें जाती हैं वीरानों को
उन्ही राहों पर मुझे तुमने ढकेल डाला
गम ना होता गर तुम हमसफ़र ना बन पाती
चली जाती मगर
ऐसे तो ना जाती
ना था कोई रिश्ता दिल का फ़िर भी
दिल तुम्हे देने की गलती कर बैठा था
जाने क्यों तुम्हे अपना बनाया था
जाने क्यों मैं तुम्हे अपना समझ बैठा था

Tuesday, October 5, 2010

अल्झहाईमर (विस्मॄति)

ध्यान योग मे बैठे योगी की तरहा
उसके शान्त, निर्मल चेहरे से
मानो दैव्यता टपकती है
ना कोई विषाद है, ना दर्द
ना कोई उल्लास है, ना हर्ष
ना कुछ पा लेने की अभिलाषा
ना कुछ खो जाने की हताशा
समय चक्र का उसे कुछ ध्यान नही
क्या वर्तमान, क्या भविष्य
कुछ ज्ञान नही
पता नही कब दिन और रात गुजर जाते हैं
मौसम आते हैं
मगर उसे बिना छुये निकल जाते हैं
भीतर एक सन्नाटा सा भर गया है
रिश्तों और सम्बधों का कोई अर्थ नही रह गया है
होठ बहुत कुछ कहना चाहते हैं
मगर पत्थर बन गये शब्द होठों तक आकर रुक जाते हैं
बुदबुदाते होठों से निकले शब्दहीन वाक्य
बिना कहे ही सब कुछ कह जाते हैं
शून्य मे अपलक झांकती उसकी आंखें
शायद ढूंढ रही हैं वक्त के उन लम्हों को
जो अतीत की तस्वीरें लेकर
उसके साथ आंखमिचौली रचाते हैं
कभी जुगनुओं से टिमटिमाते हैं
कभी रात के कण बन अंधेरे मे खो जाते हैं
मानवीय संवेदनाओं से ऊपर उठ कर
वो जा पहुंचा है एक ऐसे धरातल पर
जहां उसे ना जीवन पर प्यार आता है
ना मौत का खौफ़ सताता है
अपने चारों तरफ़ फ़ैले
एक असीम, शांत, धवल सागर
की सतह पर धीमे-धीमे चल कर
वो चलता जा रहा है सबसे दूर
एक योगी की तरहा

Saturday, September 18, 2010

सिकन्दर

जीवन आंसूओं और मुस्कराहाटों का
एक गठबन्धन है
कभी पर्वतों सी उंचाईयां
तो कभी गहरी घाटियों का संगम है
इस सफ़र का हर लम्हा
नयी चुनौती भरा होता है
मिलते हैं फूल कभी गुलिस्तां के
तो कभी नागफ़नी (कैक्टस) के
जंगलों से गुजरना होता है
घबरा कर जीवन की वास्तविकता से
जो हार जायेगा
वक्त के अंधेरों मे वो कहीं विलीन हो जायेगा
पीस डालेगा जो चट्टानों को अपनी हथेलियों से
इस दुनियां मे
सिकन्दर वही कहलायेगा

Friday, September 17, 2010

भविष्य

दिन भर चमकने के बाद

सूरज की किरणें मंद हो गयी थी

रोशनी की तलाश मे पेङों की परछाईयां

कहीं खो गयी थी

अपनी जीर्ण काया मे खुद को समेटे

ढलते सूरज से बेखबर

वो अकेला, गुमसुम, चुपचाप

रेत की पगडंडी पर चल रहा था

शायद भीतर उठे किसी अन्तर्द्वन्द से लङ रहा था

शाश्वत सच्चाई को नकारना मुश्किल होता है

शाम के बाद रात का आना निश्चित होता है

क्षितिज की ओर बढते उसके कदम देख कर

एकाएक एक ख्याल मेरे मन मे उभर आता है

वक्त की गर्द तले दबी उस जर्जर काया मे

मुझे उसका वर्तमान नही

अपना भविष्य नजर आता है

Friday, September 25, 2009

जिंदगी के टुकङे

कभी जब अपनी जिंदगी के टुकङे
समेटने की कौशिश करता हूं तो
खुद को पाता हूं सन्नाटों से घिरा
नितान्त अकेला
रेगिस्तान मे बालू के टीले पर
खङे उस हिरण की तरहा
जो पानी के एक घूंट की लालशा मे
छलावी नदी के पीछे भटकता रहता है
हर बार मगर पाता है
वही सूखी रेत का सागर और
भट्ठी सी तपती आंधियां
जो धकेल देती हैं उसे
एक ऐसे जहां मे
जहां से कभी कोई लौट कर नही आता

Wednesday, June 3, 2009

वो सिन्दूरी शाम

उस सिन्दूरी शाम को जब
सूरज क्षितिज़ के छोर पर सरकता जा रहा था
गोधूलि मे उठा रेत का बादल
आकाश मे बिखरता जा रहा था
थके-हारे उनींदे से पंछी
अपने घरों मे लौट चले थे
और तुम थी मेरे पास खङी
शान्त, निश्चल, नि:शब्द
मानो उन पलों को अपनी सांसों मे घोल कर
पी जाना चाहती थी
फूट कर बिखरते भावनाओं के ज्वार को
अपने भीतर समेट लेना चाहती थी
नजरों से जमीन को कुरेदते हुए
तुमने बुदबुदाते होठों से एक वादा कर डाला
लिख कर अपना नाम मेरी हथेली पर
अपनी मरमरी उंगलियों के पोरों से
एक ही पल मे तुमने
मेरे जीवन का अर्थ बदल डाला

Friday, January 2, 2009

चांदनी

धरती के दामन मे कल
मचलती रही चांदनी रात भर

कभी सितारों को चूमती
तो कभी बादलों से खेलती
कभी वादियों मे दरिया के साथ बह जाती
तो कभी पेङों की शाखाओं से लिपट जाती
फ़िर कभी पर्वतों की चोटियों पे
फ़ुदकती चली गयी चांदनी रात भर

कभी रजनीगंधा की सुगंध मे लिपट जाती
तो कभी गुलाबों की महक से बहक जाती
कभी हवाओं पे सवार हो कर यूं ही घूमती
तो कभी ओस की बूंद मे छुप कोंपलें चूमती
फ़िर कभी सागर की लहरों पे फ़िसलती
चली गयी चांदनी रात भर

कभी राहगिरों को रास्ता दिखाती
तो कभी गुपचुप कोने मे बैठ जाती
कभी बिछुङे दिलों को मिलाती
तो कभी बिछुङे प्रेमियों को रुलाती
फ़िर भोर के सूरज को चूमने की लालसा मे
बस यूं ही जागती रही चांदनी रात भर

Thursday, October 23, 2008

वक्त

पैरों पर पंख लगाये
मुझसे आंखें चुराता
मेरे करीब से दबे पांव
गुजरता चला जा रहा था वक्त
छुपा कर लाखों भेद अपने सीने मे
जाने कहां अनन्त मे विलीन
हुआ चला जा रहा था वक्त

मैने पलक उठा कर देखा
मुस्करा कर वक्त को
पास से जाते देखा
उसके भावहीन चेहरे पर
न कोई मुस्कराहट थी न कोई गम
न मुझसे बिछङने की वेदना थी
न कोई रंज

मेरे वर्तमान का प्रतिबिम्ब
अपनी अदृश्यी आंखों मे उतार
वो चला जा रहा था
कही मुझसे दूर
मैं हतप्रत सा खङा
देखता रहा वक्त को
लम्हा लम्हा कर
खुद से जुदा होते
और इन्तजार करता रहा
उन लम्हों के लौट आने का
जो डूब गये थे कहीं काल के अथाह समन्दर मे
फ़िर कभी न लौट आने के लिये

Thursday, October 16, 2008

सपनों से प्यार

कभी सितारों के बीच
चमकते चांद को एक टक निहारता हूं,
कभी पलकें मूंद कर
तुम्हारी तस्वीर दिल मे उतारता हूं.
कभी शबनम मे भीगी चान्दनी मे
तुम्हारी परछाईयां दिखाई देती हैं,
कभी पत्तों की खङखङाहट मे
तुम्हारे आने की आहटें सुनाई देती हैं.

अपने होठों की कोरों मे उंगली दबाये
तुम दबे पांव आ मेरे सिरहाने बैठ जाती हो,
नींद से भरी मेरी पलकों को
अपने ओस से होठों से छुआ देती हो.

तुमसे दूर अब इस अकेलेपन मे
मेरा अस्तित्व तुमसे जुङ गया है,
जब से रहने लगी हो तुम मेरे सपनों मे
मुझे सपनो से प्यार हो गया है.

Wednesday, October 15, 2008

मजदूरिन

चिलमिलाती धूप मे
तवे सी गर्म रेत पर
नंगे पांव लिये
बुझे-बुझे कदम उठाती,
कुछ धागों से शरीर ढांके
कमर मे एक अधमरी जान लटकाये
सिर पे गरीबी का बोझ उठाती,
कभी पेङ तले छाया मे रोती
तो कभी हड्डियों के पंजर
को लोरी सुनाती,

रगों का खून पसीने के साथ
बह गया पानी बन कर,
धूप की मार सह कर
चमङी रह गयी कोयला बन कर,
कौन आंक सकता है
मोल उसकी जान का
रुक रुक कर चल रही
उसकी सांस का
आकाश को चूमती ईमारत की हर ईंट पर
उसका नाम लिखा है
बिडम्बना है कि बदले मे उसे
सिर्फ़ झोंपङी का एक टुकङा मिला है
जमीन मे खुद को गाढ कर उसने
अट्टालिका को अपने जर्जर कंधों पे
उठा रखा है
नींव के पत्थर की मगर
कौन परवाह करता है

Wednesday, September 17, 2008

न जाने कब

चलते चलते
न जाने कब तुम्हारी राहें
मेरी राहों से जुङ गयी
एक अजनबी बन कर मिली थी तुम
न जाने कब
मेरी हमसफ़र बन गयी

न जाने कब लपेट लिया
तुमने अपनी मुस्कराहटों मे
बना कर मुझे अपनी लवों की लालिमा
न जाने कब बसा लिया तुमने
अपनी आंखों मे
बना कर मुझे अपने काजल की कालिमा

न जाने कब पिघल कर मैं तुम्हारी बाहों मे
बन गया तुम्हारे सांसों की गरमाहट
न जाने कब छू कर तुम्हारे सीने की धङकनें
बन गया मैं तुम्हारे प्यार की चाहत
न जाने कब मैं तुम्हारी महोब्बत मे खो गया
न जाने कब मैं तुम्हारा हो गया

Tuesday, August 26, 2008

इज़हार

कोरे कागज के टुकङे पर
यूं ही जब कुछ लकीरें खींचने लगता हूं
तो एक तस्वीर सी बनने लगती है
कागज के सूने चेहरे पर धीरे धीरे
तुम्हारी छवि उभरने लगती है

आसमां से जब टपकती
बारिस की बूंदे देखता हूं
तो हर बूंद मे तुम्हारा ही चेहरा ढूंढता हूं
बादलों के रथ पर बैठी तुम
बिजलियों की रोशनी मे नजर आती हो
फ़िर इन्द्रधनुष की सिढियों से
धीमे धीमे उतर कर तुम
जमीं पर मेरे पहलू मे सिमट जाती हो

फ़ूलों पर मंडराते भवरों की गुनगुनाहट मे
सिर्फ़ तुम्हारा ही नाम सुनाई देता है
हर फ़ूल के चेहरे मे मुझे
सिर्फ़ तुम्हारा ही चेहरा दिखाई देता है

बहुत देर तक छुपाये रखा ये राज़
मैने अपने सीने मे
आज जमाने के सामने इज़हार करता हूं
हां, मैं तुम्हे अपनी रुह से भी ज्यादा प्यार करता हूं

Monday, August 18, 2008

रात भर

मेरी बाहों मे लिपटी
मेरे सीने मे अपना सर छुपाये
मेरे दिल की धङकनों के साथ-साथ
गुनगुनाती रही
तुम रात भर


कभी खामोश रही
कभी मुस्करायी
कभी नटखटी आंखों से देखा मुझे
फ़िर कभी मेरे बालों मे
ऊंगलियां फ़िराती रही
तुम रात भर


खामोशी से खफ़ा होकर
जब मैने नाम पुकारा तुम्हारा
धीमे से अपनी ऊंगलियां
रख दी तुमने मेरे होठों पर
फ़िर दीवानो की तरह बार बार
चूमती रही वो रेश्मी ऊंगलियां
तुम रात भर

मेरी तन्हाई



चेहरे पर बर्फ़ीली मुस्कान लिये
काली रात का बाना ओढे
अपनी ठन्डी बाहों मे लपेट कर
मुझे अपना साथी बना लेती है
मेरी तन्हाई


मेरी सफ़ेद आंखो से
बहती खून की धार देख कर
बिलख उठती है वो
फ़िर रख कर अपने
सर्द होठ मेरी पलकों पर
मेरे साथ रोने लगती है
मेरी तन्हाई


दुनिया से दूर
रिश्तों से बेखबर होकर
जब रुह पर लगे
ज़ख्मों को टटोलता हूं कभी
अपनी मुलायम उंगलियों से
सहला कर मेरे जख्मों को
मेरी दवा बन जाती है
मेरी तन्हाई